साँस लेते लम्हे – विभा रश्मि , समीक्षा , शील कौशिक

जिजीविषा से भरे पात्रों से सम्पृक्त हैं: ‘साँस लेते लम्हें’
वरिष्ठ कथाकार विभा रश्मि की लघुकथाएं समग्र रूप से “सांँस लेते लम्हें’ लघुकथा संग्रह के रूप में पढ़ने को मिली। ये लघुकथाएंँ आठवें दशक के पूर्वार्द्ध से लेकर अब तक के जीवन अनुभवों का निचोड़ हैं। इनमें गज़ब की पठनीयता के साथ-साथ कथ्य की गहराई है…भरपूर कथा रस है, जो पाठकों को जहां एक ओर बांधे रखता है वहीं दूसरी ओर पाठक के शब्दकोश, विचारों और भावनाओं को समृद्ध करता है। उसे लगेगा कि इन्हें पढ़कर उसने बहुत कुछ पा लिया है।
अत्यंत भावना प्रधान बेहतरीन लघुकथा है ‘अर्थ-अनर्थ’। भूख और गरीबी किस कदर इंसान की बुद्धि हर लेती है, लघुकथा में दर्शाया गया है। दोनों पति-पत्नी आत्महत्या का विचार कर अंधेरे में निकलकर कुएँ की तरफ चल पड़ते हैं। इससे पहले ही किशोरी लाजू कुएं में छलांग लगा देती है।
“पगला गई है का, कोई भूख से अपना जान मारता है का? कायर छोकड़ी। हिम्मत तोड़ती है मूरख।” भाई द्वारा कहे वाक्य और बहन लाजू का भावनापूर्ण कृत्य उनके अंदर जीने की जिजीविषा भर देते हैं।
जिजीविषा से भरे पात्र ‘हथेली पर उगता सूरज’ में देखे जा सकते हैं। भूकंप से ध्वस्त अपने कच्चे घर के मलबे के पास बैठी औरत अपनी नन्हीं बेटी की पुकार, “धल चल ना” और एक ईंट का टुकड़ा थमाने पर जिजीविषा से भर उठी।
‘ईंट के टुकड़े को कस के थाम उसने स्वयं को अपने घर की चौखट पर खड़ा पाया।’
कुछ लघुकथाएं बाल मानसिकता को लेकर लिखी गई हैं जो पाठकों को निश्चित ही उनके अपने बचपन में लौटा ले जाएंगी जैसे पुरस्कार, नई मां, चाबी का खिलौना, बंधुआ आदि। ‘बंधुआ’ लघुकथा में दोनों गधों की ढेंचू…ढेंचू की कराहट सुनकर निष्कपट, निश्चल बच्चा मूक जानवर का दर्द समझ गया। उसकी वेदना को आत्मसात करते हुए मां से बोला, ” माई, गदहा को ऊ रुला दिया।”
” कहां रो रहा है, उतो ऐसे ही बोलता है।”
” नाहीं अम्मा, ऊ लोता है। देख लोना पहचानती नहीं तू, गांव में गधा तो है न अम्मा ।”
और गधे के पैरों की रस्सी खोलकर उसने दोनों गधों को आजाद कर दिया।
“अब गधा नहीं रोएगा अम्मा।”
बच्चा केवल प्यार की भाषा समझता है। ‘नई मां’ लघुकथा में नई मां के प्रति बुआ और दादी तरह-तरह की बातें कहती हैं, जिससे उसके मन में डर बैठ जाता है। किंतु जब नई मां प्यार से उसका सिर सहलाती है तो वह “नई माँ, मम्मा… कहकर उसकी साड़ी का पल्लू लपेटकर फफक-फफक कर रो पड़ता है।
कुछ लघुकथाओं का सफलतापूर्वक मानवीकरण किया हुआ है जैसे ‘लाठी’ में हाथ की छड़ी चमेली और छह फुट की लाठी के संवाद हैं।
‘वापसी’ में दीवारें, दरवाजे-खिड़कियां परस्पर बात करते हैं।
‘ व्यावहारिक’ में छिपकली, पतंगे वर्तमान स्थिति को स्वीकार कर सुखी जीवन की परिकल्पना करते हैं।
जहां एक ओर विभा रश्मि जी की लघुकथाएं भावना प्रधान हैं, वही वक्त पड़ने पर उनकी लघुकथाओं के पात्र विद्रोह की आवाज उठाना भी जानते हैं, जैसे छुटकारा, विरोध के स्वर।
गांव और शहर के फर्क को इंगित किया गया है ‘कलई’ लघुकथा में। शहर में गए गांव के दुधिया के समक्ष कलई खुल जाती है, जब वह भिजवाया गया सामान पकड़ा कर वापस लौटते समय पूछता है, ” बाजी-बीजी दे वास्ते कुछ भिजवाना हो तो इंतजाम कर लौ। मैं कुछ देर रुक सकता हूं।”
विपरीत प्रतिक्रिया पा और बेटे-बहू की मंशा समझ कर दूधिया अपनी पॉकेट से सौ रुपये की मावे की बर्फी लेकर सोचने लगता है, बेटे के घर से जा रहा हूंँ- ‘खाली हाथ कैसे सामना करूंगा बीजी-बाजी का।” यह एक वाक्य शहर और गांव के लोगों के बीच परस्पर नेह, सद्भावना, बुजुर्गों का मान-सम्मान व आत्मीयता को स्पष्ट कर देता है।
शीर्ष लघुकथा ‘सांस लेते लम्हें’ विशेष उल्लेख की हकदार है। आशा वृद्धाश्रम में बच्चों के आते हैं दादू और नानू की पुकार से उत्सवी माहौल हो गया। वे परस्पर जमकर खेले, किस्से-कहानियां सुनीं। व्यस्क भी बच्चों के संग बच्चा बन गए थे।
” हम बूढ़े और तुम बच्चे एक दूजे के पूरक पीढ़ियां हैं, पर एक-दूसरे से रूठी हुई। हंँसी-खुशी आज हम से रूबरू हो पायीं।” सफेद दाढ़ी वाले अंकल बोले। वास्तव में यह लघुकथा एक बढ़िया विकल्प हमारे सामने रखती हैं जिसमें वृद्ध भी खुश और बच्चे भी।
‘खोज’ लघुकथा में पार्क में बैठे बुजुर्ग सज्जन बालकों के खिलवाड़ को प्यार से देख रहे थे। तीन बच्चे घास में कुछ ढूंढ रहे थे। उनके पूछने पर बच्चों ने कहा, “अंकल! स्कूल में टीचर ने कहा था, मन लगाकर ढूंढने पर कोई न कोई कीमती चीज जरूर मिल जाती है।” “वैसे क्या पाया बच्चों तुमने, कुछ कीमती मिला?”
एक बच्चा तपाक से अपने टूटे दांतो को चमकाते और हथेली नचाते हुए बोला- “आप दादू अंकल, आज आप मिले।”
‘ एक खजाना तो आज बुजुर्ग सज्जन भी पा गए थे, बिना खोजे ही।’ सचमुच यह वाक्य बुजुर्ग को मिली असीम तृप्ति को दर्शाता है।
‘शिशुवत’ लघुकथा में दादा जी नन्हें मासूम से बोले, ” भीतर जाकर किसके दर्शन करेगी यह तेरी मांँ? गोपाल तो मेरे साथ यहीं है…।” सचमुच कितनी उद्दात्त, यथार्थ और पारदर्शी भावना है बुजुर्ग दादाजी की।
‘सोफ़ा दादा’ लघुकथा में भावना के आगे सौदेबाज धरी की धरी रह गई। पत्नी ने सोफ़े का सौदा होने और मूल्य तय हो जाने के बावजूद कबाड़ी से रुपए न लेने का निर्णय लिया।
स्त्री-पुरुष संबंधों की लघुकथाएं हैं, चाय की प्याली, वर्चस्व, मौन शब्द, पहली बारिश।
उमस भरी गर्मी के बाद झर रही पहली बारिश किस तरह बच्चों, युवा मनों को झंकृत कर सब बंधनों को तोड़ने पर मजबूर कर देती है। लघुकथा में रेणु और सुधांशु बारिश में नहाती अपनी बिटिया के बीमार होने के डर से लिवा लाने के बहाने बारिश में नहाते हैं। अम्मा जो कुछ देर पहले पड़ोसी युगल को बारिश में नहाते देख उन्हें बेशर्म, बेहया कह रही थी, अब मुस्कुराने लगी। मौसम का प्रभाव मनोविज्ञान को किस तरह बदल कर रख देता है यही दर्शाया गया है ‘पहली बारिश’ में।
‘चाय की प्याली’ लघुकथा में दरोगा की बेगम का सुबकते हुए यह कहना – ” चाय के सिवाय अब बात करने को है ही क्या हमारे बीच? बस चाय ही तो है जो आपकी व्यस्तता से दो पल चुरा कर मुझे दे देती है। तब आपकी बेगम होने का एहसास होता है,” सचमुच दरोगा के मन में अपराध बोध भर देता है। वाक्य देखिए-
‘उनकी वर्दी और छाती पर जड़े तमगों की हैसियत नकार बैठा था ये रिश्ता…’
वंचित लोगों का दुख-दर्द समेटती लघुकथाएं हैं, फ़र्क, सेल्सबाय, ठिठुरन, डर।
‘फ़र्क’ लघुकथा में मार्मिक यथार्थ प्रकट हुआ है। अठारह साल का बबलू माली बगीचे में अपना काम निपटा कर जाने लगा। सामने बैठी नानी का व्रत होने के कारण उनके लिए फ्रूट चाट, मूंगफली, भुने आलू आदि फलाहार तैयार था। बबलू पूछ बैठा, ” आज आपका त्यौहार है क्या ?”
“नहीं रे, आज मेरा व्रत है। बरसों से करती आ रही हूं ये बरत।”
उसकी आंखें प्रश्नों से भरी थी। चेहरे पर से पीली- मटमैली सी छाया गुज़र गई थी।
” क्या हुआ ?”
“इहांँ आप लोग भूख को कितना सजाकर सुंदर बना देते हो…।”
“और तेरे यहां?”
उसका अपनी उम्र से कई गुना गंभीर स्वर निकला,” हमारे उहाँ भूख को नहीं सजाते… भूख से मर जाते हैं बस्स।” संवेदना को झंकृत करती लघुकथा मन में वितृष्णा पैदा करती है।
राजतनीति में संवेदनाओं का कोई महत्व नहीं। इस भारी विसंगति पर प्रकाश डालती लघुकथा है ‘सरोकार’। नेता जी के आगमन पर जुटी भीड़ के चलते ट्रैफिक जाम होने पर एक शहीद के पिता की टीस लघुकथा में उजागर हुई है, जो अस्थि कलश में बंद अपने बेटे को लेने के लिए सैनिक कार्यालय में जाता है।
मानवीय उदात्त भावनाओं की लघुकथाएं हैं- पिताजी की रजाई, पूर्वाग्रह, सेल्स बॉय, दूध, अर्थ-अनर्थ, पूर्वाग्रह। ‘पिताजी की रचाई’ लघुकथा हमारा ध्यान शिद्दत से आकृष्ट करती है। पहाड़ों पर भारी बर्फबारी के कारण बढ़ती ठंड को देखते हुए पिता के लिए भारी भरकम रजाई खरीद कर लाई गई। किंतु उस रजाई को जब बेटा स्वयं ओढ़ कर लेटा तो उसका दम घुटने लगा। पिताजी की भारी रजाई उसने पूरी ताकत से फेंक दी और चिंतित होकर बोला, ” बीमार और कमजोर पिताजी इतनी भारी रजाई अपने ऊपर से कैसे हटाएंगे, उनके तो सांँस ही घुट जाएगी…।” उस ने तुरंत लपक कर पत्नी द्वारा दिया गया अपना विदेशी गर्म किंतु हल्का कंबल उठाकर पिताजी को दे दिया। ऐसी लघुकथाएँ समाज में सत्यम् शिवम् सुंदरम् का संदेश पारित करती हैं।
इसी तरह की लघुकथा है ‘हरियल मौनी बाबा’। इसमें पर्यावरण संरक्षण में कल्पना आधारित भावुकता भरी पहल है।
‘पूर्वाग्रह’ में लोगों की संकीर्ण सोच से बाहर निकल कर ठकुराइन कामवाली बाई तुलसी की दुधमुंही बिटिया को छाती से चिपका कर दूध पिलाती है।
‘सेल्स बॉय’ में फुटपाथ पर बैठे छोकरे से पिचकारी, रंग-गुलाल पैक करवा शानू के पापा जब उसी को देते हैं, तब वह खुशी से उन्हें देखता रह जाता है।
” तुम एक कुशल सेल्स बॉय हो बेटा! ये अपना पुरस्कार समझो।” सेल्स बॉय की मुस्कान ने उसका दिल जीत लिया था।
आधुनिकता का लबादा ओढ़े ‘बदलते संदर्भ’, क्रेजी और एंटीवायरस। लघुकथा में
आधुनिक कंप्यूटर तकनीक में प्रयोग लाए गए शब्द ‘एंटीवायरस’ का जीवन के ऐसे मोड़ पर प्रयोग किया गया, जब सचमुच इसकी आवश्यकता थी। हमउम्र मैम का अपने उस कुलीग से लगाव हो गया था जो उसे रोजाना घर छोड़ता था।
‘ हम उम्र मैम की आंखों में लाल डोरे खिंच आए थे। किंतु उन्होंने एंटीवायरस प्रोग्राम ऑन कर दिया था जिसने उनकी आंखों के स्क्रीन पर अपना काम शुरू कर दिया था।
उन्होंने बड़ी कुशलता से अपनी फाइलें और डाटा को बचा लिया था।
‘पिघलता बोझ’ लडकियों की शादी के समय माँ-बाप की लाचारी से द्रवित लड़के की अनब्याही बहन का दृढ़ता भरा वाक्य-” अब और नहीं। आप लोग भी ऐसा-वैसा नहीं कर सकते मां! ऐसे तो आपको कभी कोई लड़की पसंद नहीं आएगी माँ! कोई न कोई नुक्स आप सब मिलकर खोज ही लेंगे।”
पिंजरा एक प्रतीकात्मक लघुकथा है जिसमें पंखों वाली बंद रंग-बिरंगी चिड़ियों को देखकर छोटी बच्ची रम्या कह उठती है-
” चिड़ीमार इन्हें पिंजरे में क्यों रख देता है?” उधर उनकी मां भी रम्या की उड़ती कल्पना पर रोक लगाती शाम के समय बाहर न खेलने जाने का आदेश सुनाती है।
‘नाखून’ लघुकथा में डॉक्टरनी की बदनियति जानकर बुधिया अपनी गर्भवती पत्नी लाजो को न दिखाने का फैसला करता है।
” नहीं दिखाऊंगा लाजो को इस डॉक्टरनी को, कहीं लाजो की कोख में बेटी हुई तो? यह हत्यारिणी मार देगी कोख में ही उसे।” और लाजो को तो बेटी ही चाहिए थी।
अलंकारिक भाषा तथा व्यंजना शक्ति का प्रभाव लघुकथा ‘अर्थ-अनर्थ’ में देखते ही बनता है- ‘जब ठंडा चांँद बादलों की ओट में था तब भी धरती की फटी-सूखी बिवाइयाँ पीर रही थीं, उन दोनों की दुखती बिवाइयों की तरह ही। उनके ‘माथे’ बड़ा कर्ज़ा चढ़ चुका था। खेत कब से सूखा झेल रहे थे। महाजन का रूप और विकराल होकर उन्हें डरा रहा था। पत्नी ने बाहर रखे कच्चे घड़े से जल ले गला तर किया। पेट की आग इस मुहूर्त मर गई थी। वे दबे पांव चल रहे थे तब सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट सन्नाटा भंग कर रही थी।’
लेखिका की प्रयोगात्मक रूचि लघुकथा ‘आज की अनारकली’ में देखी जा सकती है, जिसमें कल्पना व फेंटेसी का सहारा लिया गया है। लघुकथा की नायिका ईंट पर ईंट धरते ऊपर उठती इमारतों को देख रही है। अब वह नीला आसमान, सरसों के खेत, खेतों के किनारे खड़े हरे दरख़्त तथा हाईवे का व्यस्त ट्रैफिक फिर कभी नहीं देख पाएगी। अनारकली भी तो ऐसे ही दीवारों में कैद थी। वह अनारकली की बेचैनी समानांतर देख पा रही है। भविष्य का आईना दिखाती लघुकथा प्रश्नाकुल स्थिति में ले आती है।
आंचलिक भाषा प्रयुक्त लघुकथाएं हैं- बिट्टी, संवेदना, असली चेहरा, छाँव, सपणे री छतरी। ‘ छाँव’ में पंजाबी भाषा का तड़का देखिए- ‘ठंड नाल मैं ठुर-ठुर कर रयाँ ‘ तथा ‘ज़िंदा रै पुत्तर’। ‘सपणे री छतरी’ में राजस्थानी भाषा का तड़का- ‘वेगी से जा और वैसे ही आयेगी, कहीं बातें मटकाने मत रुकियो समझी!’ मां ने कड़क स्वर में कहा था।
समग्रत: लघुकथा संग्रह ‘साँस लेते लम्हें’ की लघुकथाओं में मानवता को बचाए जाने की जद्दोजहद है। भाषाई संस्कार, अनुभव, परिवेश व धैर्य के परिणामस्वरूप संग्रह की अधिकतर लघुकथाएं रचनात्मक कसौटी पर खरी उतरती उत्कृष्ट बन पड़ी हैं। विभा जी को साधुवाद।

डॉ. शील कौशिक
हरियाणा साहित्य अकादमी से पुरस्कृत एवं सम्मानित साहित्यकार
सम्पर्क:
मेजर हॉउस -17, हुड्डा सेक्टर- 20, पार्ट-1, सिरसा–125056 मो.- 9416847107 ई–मेल -sheelshakti80@gmail.com

विभा का लघुकथा संग्रह

बंधुआ लघुकथा (संग्रह साँस लेते लम्हे)

लघुकथा           बंधुआ                   विभा रश्मि 


” मिट्टी ढुलाई के लिये चार गदहे  मिल गए   ।  आधा किराया पेशगी दे आया  ।”घनश्याम निश्चिंत था । गधों का मालिक पेशगी  टेंट में खोसता हुआ  बोला – 
” अपनी मर्ज़ी से बोझा  लाद लेना । तीस – चालीस किलो ढो लेते हैं । बहुत   मज़बूत पट्ठे हैं । पर आराम का ध्यान रहे  । हरी घास के आस – पास बाँधना  ।” किराया  देते हीं  गधे घनश्याम के हुए ।
दोनों गधों को आते हीं काम पर पेल  दिया गया  ।  जानवर का  हौसलापस्त न हो जाए , दोपहर बाद  ढुलाई का काम बंदकर  घनश्याम भी  कुछ देर सुस्ताने  बैठ गया ।  गधों को भी  पेट भरने के लिये  उसने  आज़ाद  छोड़ दिया । 
बरसात का मौसम , हर तरफ़ हरियाली का साम्राज्य । हवा में लहलहाती हरी – हरी नरम घास का स्वाद  गधों के  मुँह में घुल – घुल गया था ।
ढुलाई का काम लेकर घनश्याम ने लद्दू गधों के एक आगे और एक पीछे के  पैरों में रस्सी बाँधकर छोड़ दिया  । जिससे वे निकट की हरियाली ही चर पाएँ  ।” पेट कहाँ भरा था उनका ?” तिस पर सारा दिन उसके  बदतमीज़ लड़के  की संटी पे संटी ,  सटाक ….सटाक । आखिर दर्द से वे दोनों  ढेंचू …ढेचू कर कर्राह पड़े ।  अधबने  मकान के सामने अपनी मांई को हाड़ पेलता देख मजदूरन का  बेटा  बोल उठा -” मांई !  गदहा को ऊ लइका  रुला दिया ।” “कहाँ रो रहा है ?  उ तो अइसे ही बोलता है , ढेंचू ढेंचू …।””नाहीं अम्मा उ रोता है । देख रोना पहचानती नहीं तू , अपने गाँव में भी गदहा अइसा हीं रोता था अम्मा ।”लड़का तुरंत उठ खड़ा हुआ । किसी से पूछना नहीं था उसे । गधे के पैरों की रस्सी खोलकर  उसने दोनों गधों को आज़ाद कर दिया था । 
“अब गदहा  नहीं रोएगा अम्मा ।” लड़के ने मानो किला फ़तह कर लिया था । 

उसे पुकार लो / विभा रश्मि

वो ही धूप है

वो ही भूप है ।

वो ही गंध है

वो ही छंद है ।

वो ही गाँव है

वो ही धाम है ।

वो ही पाँव हैं

वो ही ठाँव है ।

वही प्रवाह है

वो ही चाह है ।

वो ही छाया है

वो ही माया है ।

वो तन -मन है

वो कण – कण है ।

वो कंठ – स्वर है

वो नार – नर है ।

वो ही साँस है

वो ही आस है ।

वो ही जीवन है

वो ही सीवन है ।

जीना – मरना है

तो पार उतरना है

वो ही देय है

वो ही गेय है ।

वो ही प्रमेय है

वो अप्रमेय है ।

वो ही सृजन है

वो ही सजन है ।

वो तो असीम है

वो तो ससीम है ।

वो ही आदि है

वो ही अनादि है ।

वो ही चिन्मय है

वो ही अमिय है ।

वो आमोद है

वही प्रमोद है ।

उसकी सत्ता है

हाथों में पत्ता है ।

पुकार ले , ईश है

वो जगदीश है ।

मेरे हाइकु संग्रह की समीक्षा

विचार-वाहक हाइकु
डा. सुरेन्द्र वर्मा
विभा रश्मि जी का ‘कुहू तो बोल’ हाइकु संग्रह उनका पहला ही संग्रह है, लेकिन वे हाइकु लिख कई वर्षों से रही हैं | पत्र-पत्रिकाओं में तो उनकी रचनाएँ छपती ही रहीं हैं, फेसबुक और वेब पत्रिकाओं में भी वे प्रकाशित होती रहीं है | हाइकु परिवार बड़ा समृद्ध है – हाइकु के अलावा इसमें ताँका, सेदोका, हाइगा, हाइबन जैसी काव्य विधाएँ भी सम्मिलित हैं | हाइकु तो वे लिखती ही हैं, सत्रह आखर की ये सुन्दर रचनाएँ वे तलाश किए गए समानांतर चित्रों के साथ भी प्रस्तुत करती हैं | इन्हें ‘हाइगा’ कहा गया है | आजकल उनकी विशेष अभिरुचि हाइगा रचनाओं पर ही अधिक है | जहाँ तक प्रस्तुत हाइकु संग्रह, ‘कुहू तू बोल’ का प्रश्न है, यह प्रथम संग्रह होने के बावजूद भी एक विचार प्रधान संकलन है जिसमें प्रकृति और प्रेम तो ही ही, चिंतन, मनन, दर्शन ओर विचार, समाज और स्त्री-विमर्श, आदि, भी अपने पूरे गाम्भीर्य के साथ विद्यमान है |
वैसे यह संकलन मन-प्रीत के प्रेम से ही आरम्भ होता है | यदि ह्रदय में किसी की छबि बस ही गई है तो वह चैन से नहीं रहने देती | उसे पा लेने की चाहत पलकें में सजी रहती है |फक्कड़ दिल बंजारे की तरह इक-तारे पर बस, उसी के गान गाता रहता है | उसी की यादें पखेरू बनकर फडफडाती रहती है |
चितचोर की / चाहतें बटोर के / हँसी फिसली
आ गया तेरा / अहसास, आहट / दिल के पास
फक्कड़ी गान / गाता इक-तारे पे / दिल बंजारा
पिया बटोही / पलकों के पांवड़े / सजाए गोरी
यादें पखेरू / पंख फडफड़ाती / फिरें उड़ती
ऐसी मनोदशा लगभग हर प्रेमी/प्रेमिका की रहती है, लेकिन जिस बेबाकी से इसका काव्यमय वर्णन रश्मि जी ने अपने हाइकुओं में किया है, देखते ही बनता है |
प्रेम ही वो जज्बा है जिससे परिवार बनता है और स्वर्ण सम्बन्ध कायम होते हैं | लेकिन जब हम रिश्तों में अपनी अधिक चतुराई दिखाने लगते लगते हैं और अपने ही तराजू में उन्हें तोलने लगते हैं तो कुछ न कुछ खोंट निकाल ही लेते है, और इससे गलतफहमियाँ उत्पन्न पैदा हो जाती हैं |
रिश्ते घायल / तो गलतफहमियाँ / गला दबातीं
सोने से रिश्ते / तोलो तराजू में / मिलेगी खोट
रश्मि जी जहां प्रेम की उपासक हैं, वहीं प्रकृति के रंग भी उन्हें बहुत लुभाते हैं | यों तो सभी प्रहर अपनी अपनी शोभा के लिए अद्वितीय हैं, लेकिन प्रात:काल का समय अद्भुत होता है | सूर्य, जैसा कि मिथक है, किरणों के रथ पर बैठ कर फर्राटे भरता हुआ आता है और भोर रात के आंसूओं को, जो पेड़-पौधों की फुनगियों पर मोती से पड़े रहते हैं, बटोर कर पोंछ देती है | पूरा आलम मानो खुशी से भर उठता है |
सूर्य ने थामी / सप्त अश्व लगाम / दौड़े फर्राटे
रात के आँसू / मोती फुनगियों पे / भोर बटोरे
चिड़ियाँ जाग जाती हैं और अपने तथा अपने शिशु-चिड़ियों के लिए दाना-पानी का इंतज़ाम करती हैं | शाम ढले पुन: अपने घोंसलों में आकर बच्चों की चोंच में दाने डालकर संतोष पाती है | मनुष्य इन चिड़ियों से बहुत कुछ सीख सकता है | आसमान में उड़ते हुए परिन्दे मनुष्य को नई सोच के लिए अपने परों से मानों हवा देते हैं, प्रेरित करते हैं |
लौटे विहग / सांझ ढले नीड में / दाने चोंच में
पधारे देस / प्रवासी खग प्यारे / मीठा संदेस
नई सोच को / डैनों से हवा देते / नभ में खग
यों तो ऋतुएँ छह बताई गईं हैं और सभी पर रश्मि जी ने अपनी कलम चलाई है किन्तु प्रतीत ऐसा होता है कि उनका सर्वाधिक प्रिय मौसम बरसात का मौसम है | रिमझिम बारिश में उन्हें लगता है, मानो पानी की बूंदें पत्तों पर झूल रही हैं | वर्षा थमते ही उसका आनंद लेने सभी पशु पक्षी, विशेष कर वीरबहूटियाँ, घर से निकल पड़ते हैं | दृश्य साफ़ हो जाता है | बादल हट जाता है |
बरखा बूँदें / हँस- हँस फिसलीं / पत्तों पे झूलीं
बादल हटा / धुंध नेत्रों से हटा / दृश्य साफ़ था
बीरबहूटी / चली लेने आनंद / ऋतु बरखा
निर्झर फूटा / पर्वतों की गोद से / धरा ने लूटा
प्रकृति ही नहीं, विभा जी की सोच में समाज भी कम नहीं है | हमारे अपने त्योहार, अपनी परम्पराएं, अपनी होली-दीवाली और रक्षा बंधन जैसे पर्व हमें न सिर्फ एकता में बाँधे रखते हैं बल्कि शाश्वत मूल्यों से भी अवगत कराते है | दीपावली आती है तो धरती और आसमान दोनों चमक उठते हैं | दीपक के प्रज्ज्वलित होते ही अमावस का अन्धकार डरकर भाग जाता है | आलोक फैल जाता है| रात भर रोशनी देने के लिए दरियादिल दिया जागता रहता है | यह ठीक ऐसे ही है कि जैसे मनुष्य में आस का दीपक जब टिमटिमाता है तो नैराश्य दूर भाग जाता है |
सितारों भरा / धरती आसमान / दोनों चमके
आलोक फैला / दीपक प्रज्ज्वलित / तम भी डरा
प्यारी रोशनी / देने को जिया, दिया / दरिया दिल
दूर नैराश्य / आस दीपक जब / टिमटिमाया
दीपावली का दीप यदि नैराश्य पर विजय पाने के लिए हमें प्रेरित करता है तो रक्षा-बंधन भाई- बहिन के सम्बन्ध को सुदृढ़ करने का आह्वाहन करता है | यह सम्बन्ध वासनाओं की दुर्गन्ध से मुक्त, पवित्र और संदल सा सुवासित है | “रक्षा बंधन / संदल सा सम्बन्ध / मही सुवासित” |
आज जब नारी अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो रही है तो विभा जी भी इस स्त्री-विमर्श में पीछे नहीं हैं | बेशक हमारे मिथकों में, परी-कथाओं में, बेटियों को अत्यंत सुकोमल भले ही बताया गया हो, किन्तु बेटियों की नई कहानी कुछ अलग ही है | अब बेटी शिक्षित, स्वाभिमानी और सक्षम है | नारी अपनी जीवन-यात्रा के संघर्ष में हौसले और हिम्मत से आगे बढ़ रही है | वह अपनी रक्षा खुद करना जान गई है | वह स्वयंसिद्धा है |
परी कथा से / निकली सुकोमल / तनया प्यारी
नव्य कहानी / शिक्षिता स्वाभिमानी / बेटी सक्षम
नारी हौसला / है पर्याय, संघर्ष / जीवन यात्रा
आत्म सुरक्षा / दुलारी सीख, रक्षा- / तू स्वयंसिद्धा
लेकिन इतना सब होते हुए भी यह दुर्भाग्य पूर्ण है कि वह कन्या जो पियरी ओढ़े, अपने नयनों में हज़ार स्वप्न सँजोये जब पिता के घर से बिदा होती है तो इसके लिए दहेज़ के रूप में उसके पिता को अधिकतर खासा मूल्य भी चुकाना पड़ता है | आर्थिक सुरक्षा के अभाव में आज भी नारी बेजान गुड़ियों की तरह बाज़ार में बेंची जा रही है | “नन्हीं गुड़िया / जान बेजान, दोनों / बिकीं बाज़ार” | अभी बहुत काम बाक़ी है | ये स्थितियां बदलना चाहिए |
हम स्वतंत्रता, भ्रातृत्व ओर समानता की बातें चाहे जितनी करते रहें, हमारा समाज अभी भी इन प्रजातांत्रिक मूल्यों को अपना पाने में सफल नहीं हुआ है | स्त्री और पुरुष में तो सामाजिक-आर्थिक भेदभाव किया ही जाता है, समाज में आर्थिक विषमता भी इतनी गहरी है कि गरीब और अमीर के बीच खाई दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही है | और इसका एक बड़ा कारण अपनी रोटी कमाने के लिए शरीर-श्रम की अवहेलना है | गांधी जी ने शरीर श्रम के महत्त्व को समझा था | उन्होंने कहा था कि जो बिना शरीर-श्रम किए रोटी खाता है वह वस्तुत: दूसरे की रोटी चुराता है | अपने श्रम से कमाई रोटी ही सर्वाधिक स्वादिष्ट होती है | रश्मि जी – “रोटी में स्वाद / खुरदरे हाथों से / पोएँ श्रमिक” | श्रम के महत्त्व को समझते हुए विभा जी स्पष्ट कहती हैं,- “गुनगुनाती /श्रम सीड़ियाँ चढी /धरती बेटी”
कवयित्री विभा रश्मि के हाइकु सोच को प्रेरित करते हैं | वे मुख्यत: विचार वाहक हैं | उनका चिंतन, दर्शन मूल्याधारित है | यह केवल तटस्थ तर्क और तर्कों को वरीयता नहीं देता बल्कि ह्रदय के भावों को भी मूल्यवत्ता प्रदान करता है | आजकल हम विचार के स्तर पर ही आधुनिक भले ही बन गए हों किन्तु हमारे भाव और आचरण में कोई अंतर नहीं आया है | इसीलिए जीवन के सूत्रों को स्पष्ट करते हुए वे कहती हैं-
आधुनिकता / सोच में ला, ह्रदय / भर भावों से
मन चरखा / नेहिल सूत कात / ताना वितान
सांत्वना फाहा / दर्द का मरहम / ढके घाव को
दर्शन में नियति और पुरुषार्थ के बीच विवाद बड़ा पुराना है | रश्मि जी भी इस विवाद को कोई स्पष्ट दिशा नहीं दे पाई हैं | उनका मन कभी पुरुषार्थ की ओर तो कभी नियति की और झुकता दिखाई देता है | एक जगह वे कहती हैं, “खिलौना इंसा / ईश्वर मन चाहा / खेल खेलता” (नियति), तो कभी पुरुषार्थ का पक्ष लेते हुए कर्म पर बल देने लगती हैं –
शुभ मुहूर्त / न ढूँढ़, रख आस्था / कर्म से वास्ता
हौसला देख / हुई नतमस्तक / कठिन घड़ी
बहुत कुछ दार्शनिक अंदाज़ में उनके कुछ हाइकु हमारे अंतर को उद्वेलित करने में सफल हुए हैं-
आत्मा परिंदा / फड़फड़ाता, काटे / उम्र कैद
लहरें नाव / खेले ज़िंदगी दांव / कम न चाव
फांस दिल की / खतरनाक, पग / चुभे कांटे सी
भाग्योदय ने / है तान दिया तम्बू / उजियारे का
कामना करता हूँ कि कवयित्री विभा रश्मि का भी भाग्योदय हो और वे भी हाइकु जगत में उजियारे का एक तम्बू तान सकें |
कुहू तू बोल (हाइकु-संग्रह) /विभा रश्मि /विश्व हिन्दी साहित्य परिषद् /दिल्ली /2016 /मूल्य- रु. 150/-
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डा. सुरेन्द्र वर्मा
10, एच आई जी / 1, सर्कुलर रोड ,इलाहाबाद – 211001
मो. 9621222778
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