साँस लेते लम्हे – विभा रश्मि , समीक्षा , शील कौशिक

जिजीविषा से भरे पात्रों से सम्पृक्त हैं: ‘साँस लेते लम्हें’
वरिष्ठ कथाकार विभा रश्मि की लघुकथाएं समग्र रूप से “सांँस लेते लम्हें’ लघुकथा संग्रह के रूप में पढ़ने को मिली। ये लघुकथाएंँ आठवें दशक के पूर्वार्द्ध से लेकर अब तक के जीवन अनुभवों का निचोड़ हैं। इनमें गज़ब की पठनीयता के साथ-साथ कथ्य की गहराई है…भरपूर कथा रस है, जो पाठकों को जहां एक ओर बांधे रखता है वहीं दूसरी ओर पाठक के शब्दकोश, विचारों और भावनाओं को समृद्ध करता है। उसे लगेगा कि इन्हें पढ़कर उसने बहुत कुछ पा लिया है।
अत्यंत भावना प्रधान बेहतरीन लघुकथा है ‘अर्थ-अनर्थ’। भूख और गरीबी किस कदर इंसान की बुद्धि हर लेती है, लघुकथा में दर्शाया गया है। दोनों पति-पत्नी आत्महत्या का विचार कर अंधेरे में निकलकर कुएँ की तरफ चल पड़ते हैं। इससे पहले ही किशोरी लाजू कुएं में छलांग लगा देती है।
“पगला गई है का, कोई भूख से अपना जान मारता है का? कायर छोकड़ी। हिम्मत तोड़ती है मूरख।” भाई द्वारा कहे वाक्य और बहन लाजू का भावनापूर्ण कृत्य उनके अंदर जीने की जिजीविषा भर देते हैं।
जिजीविषा से भरे पात्र ‘हथेली पर उगता सूरज’ में देखे जा सकते हैं। भूकंप से ध्वस्त अपने कच्चे घर के मलबे के पास बैठी औरत अपनी नन्हीं बेटी की पुकार, “धल चल ना” और एक ईंट का टुकड़ा थमाने पर जिजीविषा से भर उठी।
‘ईंट के टुकड़े को कस के थाम उसने स्वयं को अपने घर की चौखट पर खड़ा पाया।’
कुछ लघुकथाएं बाल मानसिकता को लेकर लिखी गई हैं जो पाठकों को निश्चित ही उनके अपने बचपन में लौटा ले जाएंगी जैसे पुरस्कार, नई मां, चाबी का खिलौना, बंधुआ आदि। ‘बंधुआ’ लघुकथा में दोनों गधों की ढेंचू…ढेंचू की कराहट सुनकर निष्कपट, निश्चल बच्चा मूक जानवर का दर्द समझ गया। उसकी वेदना को आत्मसात करते हुए मां से बोला, ” माई, गदहा को ऊ रुला दिया।”
” कहां रो रहा है, उतो ऐसे ही बोलता है।”
” नाहीं अम्मा, ऊ लोता है। देख लोना पहचानती नहीं तू, गांव में गधा तो है न अम्मा ।”
और गधे के पैरों की रस्सी खोलकर उसने दोनों गधों को आजाद कर दिया।
“अब गधा नहीं रोएगा अम्मा।”
बच्चा केवल प्यार की भाषा समझता है। ‘नई मां’ लघुकथा में नई मां के प्रति बुआ और दादी तरह-तरह की बातें कहती हैं, जिससे उसके मन में डर बैठ जाता है। किंतु जब नई मां प्यार से उसका सिर सहलाती है तो वह “नई माँ, मम्मा… कहकर उसकी साड़ी का पल्लू लपेटकर फफक-फफक कर रो पड़ता है।
कुछ लघुकथाओं का सफलतापूर्वक मानवीकरण किया हुआ है जैसे ‘लाठी’ में हाथ की छड़ी चमेली और छह फुट की लाठी के संवाद हैं।
‘वापसी’ में दीवारें, दरवाजे-खिड़कियां परस्पर बात करते हैं।
‘ व्यावहारिक’ में छिपकली, पतंगे वर्तमान स्थिति को स्वीकार कर सुखी जीवन की परिकल्पना करते हैं।
जहां एक ओर विभा रश्मि जी की लघुकथाएं भावना प्रधान हैं, वही वक्त पड़ने पर उनकी लघुकथाओं के पात्र विद्रोह की आवाज उठाना भी जानते हैं, जैसे छुटकारा, विरोध के स्वर।
गांव और शहर के फर्क को इंगित किया गया है ‘कलई’ लघुकथा में। शहर में गए गांव के दुधिया के समक्ष कलई खुल जाती है, जब वह भिजवाया गया सामान पकड़ा कर वापस लौटते समय पूछता है, ” बाजी-बीजी दे वास्ते कुछ भिजवाना हो तो इंतजाम कर लौ। मैं कुछ देर रुक सकता हूं।”
विपरीत प्रतिक्रिया पा और बेटे-बहू की मंशा समझ कर दूधिया अपनी पॉकेट से सौ रुपये की मावे की बर्फी लेकर सोचने लगता है, बेटे के घर से जा रहा हूंँ- ‘खाली हाथ कैसे सामना करूंगा बीजी-बाजी का।” यह एक वाक्य शहर और गांव के लोगों के बीच परस्पर नेह, सद्भावना, बुजुर्गों का मान-सम्मान व आत्मीयता को स्पष्ट कर देता है।
शीर्ष लघुकथा ‘सांस लेते लम्हें’ विशेष उल्लेख की हकदार है। आशा वृद्धाश्रम में बच्चों के आते हैं दादू और नानू की पुकार से उत्सवी माहौल हो गया। वे परस्पर जमकर खेले, किस्से-कहानियां सुनीं। व्यस्क भी बच्चों के संग बच्चा बन गए थे।
” हम बूढ़े और तुम बच्चे एक दूजे के पूरक पीढ़ियां हैं, पर एक-दूसरे से रूठी हुई। हंँसी-खुशी आज हम से रूबरू हो पायीं।” सफेद दाढ़ी वाले अंकल बोले। वास्तव में यह लघुकथा एक बढ़िया विकल्प हमारे सामने रखती हैं जिसमें वृद्ध भी खुश और बच्चे भी।
‘खोज’ लघुकथा में पार्क में बैठे बुजुर्ग सज्जन बालकों के खिलवाड़ को प्यार से देख रहे थे। तीन बच्चे घास में कुछ ढूंढ रहे थे। उनके पूछने पर बच्चों ने कहा, “अंकल! स्कूल में टीचर ने कहा था, मन लगाकर ढूंढने पर कोई न कोई कीमती चीज जरूर मिल जाती है।” “वैसे क्या पाया बच्चों तुमने, कुछ कीमती मिला?”
एक बच्चा तपाक से अपने टूटे दांतो को चमकाते और हथेली नचाते हुए बोला- “आप दादू अंकल, आज आप मिले।”
‘ एक खजाना तो आज बुजुर्ग सज्जन भी पा गए थे, बिना खोजे ही।’ सचमुच यह वाक्य बुजुर्ग को मिली असीम तृप्ति को दर्शाता है।
‘शिशुवत’ लघुकथा में दादा जी नन्हें मासूम से बोले, ” भीतर जाकर किसके दर्शन करेगी यह तेरी मांँ? गोपाल तो मेरे साथ यहीं है…।” सचमुच कितनी उद्दात्त, यथार्थ और पारदर्शी भावना है बुजुर्ग दादाजी की।
‘सोफ़ा दादा’ लघुकथा में भावना के आगे सौदेबाज धरी की धरी रह गई। पत्नी ने सोफ़े का सौदा होने और मूल्य तय हो जाने के बावजूद कबाड़ी से रुपए न लेने का निर्णय लिया।
स्त्री-पुरुष संबंधों की लघुकथाएं हैं, चाय की प्याली, वर्चस्व, मौन शब्द, पहली बारिश।
उमस भरी गर्मी के बाद झर रही पहली बारिश किस तरह बच्चों, युवा मनों को झंकृत कर सब बंधनों को तोड़ने पर मजबूर कर देती है। लघुकथा में रेणु और सुधांशु बारिश में नहाती अपनी बिटिया के बीमार होने के डर से लिवा लाने के बहाने बारिश में नहाते हैं। अम्मा जो कुछ देर पहले पड़ोसी युगल को बारिश में नहाते देख उन्हें बेशर्म, बेहया कह रही थी, अब मुस्कुराने लगी। मौसम का प्रभाव मनोविज्ञान को किस तरह बदल कर रख देता है यही दर्शाया गया है ‘पहली बारिश’ में।
‘चाय की प्याली’ लघुकथा में दरोगा की बेगम का सुबकते हुए यह कहना – ” चाय के सिवाय अब बात करने को है ही क्या हमारे बीच? बस चाय ही तो है जो आपकी व्यस्तता से दो पल चुरा कर मुझे दे देती है। तब आपकी बेगम होने का एहसास होता है,” सचमुच दरोगा के मन में अपराध बोध भर देता है। वाक्य देखिए-
‘उनकी वर्दी और छाती पर जड़े तमगों की हैसियत नकार बैठा था ये रिश्ता…’
वंचित लोगों का दुख-दर्द समेटती लघुकथाएं हैं, फ़र्क, सेल्सबाय, ठिठुरन, डर।
‘फ़र्क’ लघुकथा में मार्मिक यथार्थ प्रकट हुआ है। अठारह साल का बबलू माली बगीचे में अपना काम निपटा कर जाने लगा। सामने बैठी नानी का व्रत होने के कारण उनके लिए फ्रूट चाट, मूंगफली, भुने आलू आदि फलाहार तैयार था। बबलू पूछ बैठा, ” आज आपका त्यौहार है क्या ?”
“नहीं रे, आज मेरा व्रत है। बरसों से करती आ रही हूं ये बरत।”
उसकी आंखें प्रश्नों से भरी थी। चेहरे पर से पीली- मटमैली सी छाया गुज़र गई थी।
” क्या हुआ ?”
“इहांँ आप लोग भूख को कितना सजाकर सुंदर बना देते हो…।”
“और तेरे यहां?”
उसका अपनी उम्र से कई गुना गंभीर स्वर निकला,” हमारे उहाँ भूख को नहीं सजाते… भूख से मर जाते हैं बस्स।” संवेदना को झंकृत करती लघुकथा मन में वितृष्णा पैदा करती है।
राजतनीति में संवेदनाओं का कोई महत्व नहीं। इस भारी विसंगति पर प्रकाश डालती लघुकथा है ‘सरोकार’। नेता जी के आगमन पर जुटी भीड़ के चलते ट्रैफिक जाम होने पर एक शहीद के पिता की टीस लघुकथा में उजागर हुई है, जो अस्थि कलश में बंद अपने बेटे को लेने के लिए सैनिक कार्यालय में जाता है।
मानवीय उदात्त भावनाओं की लघुकथाएं हैं- पिताजी की रजाई, पूर्वाग्रह, सेल्स बॉय, दूध, अर्थ-अनर्थ, पूर्वाग्रह। ‘पिताजी की रचाई’ लघुकथा हमारा ध्यान शिद्दत से आकृष्ट करती है। पहाड़ों पर भारी बर्फबारी के कारण बढ़ती ठंड को देखते हुए पिता के लिए भारी भरकम रजाई खरीद कर लाई गई। किंतु उस रजाई को जब बेटा स्वयं ओढ़ कर लेटा तो उसका दम घुटने लगा। पिताजी की भारी रजाई उसने पूरी ताकत से फेंक दी और चिंतित होकर बोला, ” बीमार और कमजोर पिताजी इतनी भारी रजाई अपने ऊपर से कैसे हटाएंगे, उनके तो सांँस ही घुट जाएगी…।” उस ने तुरंत लपक कर पत्नी द्वारा दिया गया अपना विदेशी गर्म किंतु हल्का कंबल उठाकर पिताजी को दे दिया। ऐसी लघुकथाएँ समाज में सत्यम् शिवम् सुंदरम् का संदेश पारित करती हैं।
इसी तरह की लघुकथा है ‘हरियल मौनी बाबा’। इसमें पर्यावरण संरक्षण में कल्पना आधारित भावुकता भरी पहल है।
‘पूर्वाग्रह’ में लोगों की संकीर्ण सोच से बाहर निकल कर ठकुराइन कामवाली बाई तुलसी की दुधमुंही बिटिया को छाती से चिपका कर दूध पिलाती है।
‘सेल्स बॉय’ में फुटपाथ पर बैठे छोकरे से पिचकारी, रंग-गुलाल पैक करवा शानू के पापा जब उसी को देते हैं, तब वह खुशी से उन्हें देखता रह जाता है।
” तुम एक कुशल सेल्स बॉय हो बेटा! ये अपना पुरस्कार समझो।” सेल्स बॉय की मुस्कान ने उसका दिल जीत लिया था।
आधुनिकता का लबादा ओढ़े ‘बदलते संदर्भ’, क्रेजी और एंटीवायरस। लघुकथा में
आधुनिक कंप्यूटर तकनीक में प्रयोग लाए गए शब्द ‘एंटीवायरस’ का जीवन के ऐसे मोड़ पर प्रयोग किया गया, जब सचमुच इसकी आवश्यकता थी। हमउम्र मैम का अपने उस कुलीग से लगाव हो गया था जो उसे रोजाना घर छोड़ता था।
‘ हम उम्र मैम की आंखों में लाल डोरे खिंच आए थे। किंतु उन्होंने एंटीवायरस प्रोग्राम ऑन कर दिया था जिसने उनकी आंखों के स्क्रीन पर अपना काम शुरू कर दिया था।
उन्होंने बड़ी कुशलता से अपनी फाइलें और डाटा को बचा लिया था।
‘पिघलता बोझ’ लडकियों की शादी के समय माँ-बाप की लाचारी से द्रवित लड़के की अनब्याही बहन का दृढ़ता भरा वाक्य-” अब और नहीं। आप लोग भी ऐसा-वैसा नहीं कर सकते मां! ऐसे तो आपको कभी कोई लड़की पसंद नहीं आएगी माँ! कोई न कोई नुक्स आप सब मिलकर खोज ही लेंगे।”
पिंजरा एक प्रतीकात्मक लघुकथा है जिसमें पंखों वाली बंद रंग-बिरंगी चिड़ियों को देखकर छोटी बच्ची रम्या कह उठती है-
” चिड़ीमार इन्हें पिंजरे में क्यों रख देता है?” उधर उनकी मां भी रम्या की उड़ती कल्पना पर रोक लगाती शाम के समय बाहर न खेलने जाने का आदेश सुनाती है।
‘नाखून’ लघुकथा में डॉक्टरनी की बदनियति जानकर बुधिया अपनी गर्भवती पत्नी लाजो को न दिखाने का फैसला करता है।
” नहीं दिखाऊंगा लाजो को इस डॉक्टरनी को, कहीं लाजो की कोख में बेटी हुई तो? यह हत्यारिणी मार देगी कोख में ही उसे।” और लाजो को तो बेटी ही चाहिए थी।
अलंकारिक भाषा तथा व्यंजना शक्ति का प्रभाव लघुकथा ‘अर्थ-अनर्थ’ में देखते ही बनता है- ‘जब ठंडा चांँद बादलों की ओट में था तब भी धरती की फटी-सूखी बिवाइयाँ पीर रही थीं, उन दोनों की दुखती बिवाइयों की तरह ही। उनके ‘माथे’ बड़ा कर्ज़ा चढ़ चुका था। खेत कब से सूखा झेल रहे थे। महाजन का रूप और विकराल होकर उन्हें डरा रहा था। पत्नी ने बाहर रखे कच्चे घड़े से जल ले गला तर किया। पेट की आग इस मुहूर्त मर गई थी। वे दबे पांव चल रहे थे तब सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट सन्नाटा भंग कर रही थी।’
लेखिका की प्रयोगात्मक रूचि लघुकथा ‘आज की अनारकली’ में देखी जा सकती है, जिसमें कल्पना व फेंटेसी का सहारा लिया गया है। लघुकथा की नायिका ईंट पर ईंट धरते ऊपर उठती इमारतों को देख रही है। अब वह नीला आसमान, सरसों के खेत, खेतों के किनारे खड़े हरे दरख़्त तथा हाईवे का व्यस्त ट्रैफिक फिर कभी नहीं देख पाएगी। अनारकली भी तो ऐसे ही दीवारों में कैद थी। वह अनारकली की बेचैनी समानांतर देख पा रही है। भविष्य का आईना दिखाती लघुकथा प्रश्नाकुल स्थिति में ले आती है।
आंचलिक भाषा प्रयुक्त लघुकथाएं हैं- बिट्टी, संवेदना, असली चेहरा, छाँव, सपणे री छतरी। ‘ छाँव’ में पंजाबी भाषा का तड़का देखिए- ‘ठंड नाल मैं ठुर-ठुर कर रयाँ ‘ तथा ‘ज़िंदा रै पुत्तर’। ‘सपणे री छतरी’ में राजस्थानी भाषा का तड़का- ‘वेगी से जा और वैसे ही आयेगी, कहीं बातें मटकाने मत रुकियो समझी!’ मां ने कड़क स्वर में कहा था।
समग्रत: लघुकथा संग्रह ‘साँस लेते लम्हें’ की लघुकथाओं में मानवता को बचाए जाने की जद्दोजहद है। भाषाई संस्कार, अनुभव, परिवेश व धैर्य के परिणामस्वरूप संग्रह की अधिकतर लघुकथाएं रचनात्मक कसौटी पर खरी उतरती उत्कृष्ट बन पड़ी हैं। विभा जी को साधुवाद।

डॉ. शील कौशिक
हरियाणा साहित्य अकादमी से पुरस्कृत एवं सम्मानित साहित्यकार
सम्पर्क:
मेजर हॉउस -17, हुड्डा सेक्टर- 20, पार्ट-1, सिरसा–125056 मो.- 9416847107 ई–मेल -sheelshakti80@gmail.com

विभा का लघुकथा संग्रह

Leave a comment