बंधुआ लघुकथा (संग्रह साँस लेते लम्हे)

लघुकथा           बंधुआ                   विभा रश्मि 


” मिट्टी ढुलाई के लिये चार गदहे  मिल गए   ।  आधा किराया पेशगी दे आया  ।”घनश्याम निश्चिंत था । गधों का मालिक पेशगी  टेंट में खोसता हुआ  बोला – 
” अपनी मर्ज़ी से बोझा  लाद लेना । तीस – चालीस किलो ढो लेते हैं । बहुत   मज़बूत पट्ठे हैं । पर आराम का ध्यान रहे  । हरी घास के आस – पास बाँधना  ।” किराया  देते हीं  गधे घनश्याम के हुए ।
दोनों गधों को आते हीं काम पर पेल  दिया गया  ।  जानवर का  हौसलापस्त न हो जाए , दोपहर बाद  ढुलाई का काम बंदकर  घनश्याम भी  कुछ देर सुस्ताने  बैठ गया ।  गधों को भी  पेट भरने के लिये  उसने  आज़ाद  छोड़ दिया । 
बरसात का मौसम , हर तरफ़ हरियाली का साम्राज्य । हवा में लहलहाती हरी – हरी नरम घास का स्वाद  गधों के  मुँह में घुल – घुल गया था ।
ढुलाई का काम लेकर घनश्याम ने लद्दू गधों के एक आगे और एक पीछे के  पैरों में रस्सी बाँधकर छोड़ दिया  । जिससे वे निकट की हरियाली ही चर पाएँ  ।” पेट कहाँ भरा था उनका ?” तिस पर सारा दिन उसके  बदतमीज़ लड़के  की संटी पे संटी ,  सटाक ….सटाक । आखिर दर्द से वे दोनों  ढेंचू …ढेचू कर कर्राह पड़े ।  अधबने  मकान के सामने अपनी मांई को हाड़ पेलता देख मजदूरन का  बेटा  बोल उठा -” मांई !  गदहा को ऊ लइका  रुला दिया ।” “कहाँ रो रहा है ?  उ तो अइसे ही बोलता है , ढेंचू ढेंचू …।””नाहीं अम्मा उ रोता है । देख रोना पहचानती नहीं तू , अपने गाँव में भी गदहा अइसा हीं रोता था अम्मा ।”लड़का तुरंत उठ खड़ा हुआ । किसी से पूछना नहीं था उसे । गधे के पैरों की रस्सी खोलकर  उसने दोनों गधों को आज़ाद कर दिया था । 
“अब गदहा  नहीं रोएगा अम्मा ।” लड़के ने मानो किला फ़तह कर लिया था । 

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